राखीगढ़ी गांव के पश्चिमी छोर पर चल रहे उत्खनन स्थल पर गजब का उत्साह है। शोध छात्र और मजदूर एकदूसरे से हिलमिल कर जोश के साथ काम करते दिख रहे हैं। दोपहर का समय है, गांव की गलियों में सन्नाटा है लेकिन इस स्थल पर आनेजाने वालों का तांता लगा है। गांव के पढ़ेलिखे लोग बारबार यह पता करने पहुंचते हैं कि कुछ नई चीज तो नहीं मिली। शोध छात्र और मजदूर करीब 20 मीटर नीचे गड्ढे में हैं। कुछ मजदूर खुदाई की मिट्टी बाहर ला कर एक जगह ढेर लगा रहे हैं। यह नजारा था जब इस प्रतिनिधि ने उक्त स्थल का दौरा किया। हरियाणा के हिसार से करीब 42 किलोमीटर हांसीजींद रोड पर राखीगढ़ी गांव में मिले हजारों साल पुरानी सभ्यता के अवशेष उत्सुकता जगाने वाले हैं। पुरातत्त्व में रुचि रखने वाले कुछ लोग दूरदूर से यहां आ रहे हैं। आबादी से सटे हुए एक टीले पर उत्खनन का काम चल रहा है। डेक्कन यूनिवर्सिटी के शोधार्थियों और पुरातत्त्व विभाग द्वारा कराई जा रही खुदाई टीले की ऊंचाई से शुरू हो कर बिलकुल नीचे तक आ गई है। गांव की समतल जमीन से करीब 20 मीटर नीचे तक उत्खनन में तरहतरह के अवशेष मिल रहे हैं और नैचुरल मिट्टी अभी तक दिखाई नहीं दी है। पुरातत्त्ववेत्ता टीले के नीचे 3-3 सभ्यताओं का दावा कर रहे हैं। इस उत्खनन से पुरातत्त्ववेत्ताओं को 2,500 से 5 हजार साल पुरानी सभ्यताओं के प्रमाण मिल रहे हैं। पुरातत्त्ववेत्ता भारतीय उपमहाद्वीप में हड़प्पा सभ्यता की 5 बड़ी आबादी में से एक राखीगढ़ी के होने का दावा कर रहे हैं। सिंधु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीन नदीघाटी सभ्यताओं में से एक है। इस का विकास सिंधु और घग्घर के किनारे हुआ। मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इस के प्रमुख केंद्र माने जाते हैं। ब्रिटिशकाल में हुई खुदाई के आधार पर इतिहासकारों और पुरातत्त्ववेत्ताओं का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे व उजड़े थे। इस सभ्यता के खोजे गए केंद्रों में से ज्यादातर स्थल सरस्वती नदी और उस की सहायक नदियों के आसपास हैं। अभी तक कुल खोजों में से 3 फीसदी का भी उत्खनन नहीं हो पाया है।
हर टीले की अपनी विशेषता
पुरातत्त्ववेत्ताओं का मानना है कि इस सभ्यता का क्षेत्र विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से कई गुना विशाल था। दरअसल, राखी-गढ़ी 2 जुड़वां गांव हैं। राज्य सरकार के राजस्व रिकौर्ड में राखी शाहपुर और राखीखास 2 अलगअलग गांव हैं। लेकिन दोनों गांवों के क्षेत्र में पुरानी विरासत मिलने के कारण पुरातत्त्व विभाग ने इन गांवों को अंतर्राष्ट्रीय विरासत के लिए एक ही नाम राखीगढ़ी दे दिया है। गांव के करीब 350 एकड़ में 9 टीले मिले हैं जो विशाल क्षेत्र में फैले हुए हैं। पुरातत्त्व विभाग ने इन टीलों को 1 से 9 नंबर तक नाम दे रखे हैं। हरेक टीले की अपनी अलग विशेषता है। इन में से 5 टीले एकदूसरे से जुड़े हुए हैं। इन में 2 टीले कम घनत्व आबादी क्षेत्र के हैं। मौजूदा प्रोजैक्ट में टीला नंबर 4, 6 और 7 में खुदाई चल रही है। टीला नंबर 1, 2, 3 व 5 पुरातत्त्व विभाग के कब्जे में हैं जबकि 4 नंबर का कुछ हिस्सा और 6, 7, 8 व 9 किसानों द्वारा जोते जाते हैं। हर टीले की अपनी विशेषता है। टीला नंबर 6 हड़प्पनों का आवासीय क्षेत्र था। इस से पता चलता है कि वे लोग कैसे रहते थे। टीला नंबर 4 से अनुमान है कि वे यहां कब, कैसे स्थापित हुए। पुरातत्त्ववेत्ताओं का अनुमान है कि जब ये बाशिंदे यहां आए थे तो टीला नंबर 6 पर बसे थे। यहां हड़प्पाकाल से पूर्व के तथ्य भी मिले हैं। टीला नंबर 7 में हाल ही में 4 नर कंकाल मिले हैं। इन में से 2 पुरुषों के 1 स्त्री का और 1 बच्चे का है। कंकाल के पास मिट्टी के बरतन और अनाज मिले हैं। चूड़ियां भी मिली हैं। कहा जा रहा है कि उस समय के लोग पुनर्जन्म में यकीन रखते थे। मृत आदमी की लंबाई 5.7 इंच, उम्र करीब 50 साल, औरत की लंबाई 5.4 इंच, उम्र करीब 30 साल और बच्चे की उम्र लगभग 10 साल होने का अनुमान है। यहां और भी कंकाल हैं। यह जगह शहर के बाहरी हिस्से में कब्रगाह थी। करीब 50 एकड़ क्षेत्र में फैले इस टीले में स्मारक भी मिले हैं। कुछ जानकारों का कहना है कि यह मध्यकाल का हो सकता है हालांकि अभी कंकालों की रेडियो कार्बन डेटिंग व डीएनए नहीं कराया गया है। इन्हें डेक्कन कालेज एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट, पुणे भेजा गया है। टीला नंबर 4 की खुदाई स्थल पर डेक्कन यूनिवर्सिटी के शोधार्थी योगेश यादव कहते हैं कि हम इस टीले की ऊर्ध्वाकार यानी खड़ी खुदाई कर रहे हैं। हमारा उद्देश्य यह पता करना है कि टीला नंबर 4 का कल्चरल सीक्वैंस (सांस्कृतिक अनुक्रम) क्या है। हम इस कल्चरल सीक्वैंस को फिर से बनाना चाहते हैं ताकि हम जान सकें कि यहां पहले कौन आया। उन लोगों ने शहरीकरण अवस्था में प्रवेश किया तो क्याक्या परिवर्तन हुए। योगेश परत दर परत निकल रही दीवारों को दिखाते हुए कहते हैं कि यहां खुदाई की मिट्टी की विभिन्न रंगों की परतें दर्शाती हैं कि यहां 3 अलगअलग काल की सभ्यताएं रही हैं। खुदाई में घर के अंदर ईंटों से बना एक विशाल स्टोरेजरूम निकला था। इस के पास कमरा है। इस टीले के नीचे 2 हजार से 5 हजार साल के दौरान 8 बार घर बन चुके हैं। इसी यूनिवर्सिटी के शोधार्थी नागराज कहते हैं कि मिट्टी के अंदर से आकर्षक पत्थर निकल रहे हैं। यहां के लोग आपस में पत्थर का व्यापार करते थे क्योंकि यहां जो पत्थर मिले हैं वे अफगानिस्तान और पाकिस्तान के हैं। गुजरात में खंबात की खाड़ी के पास के पत्थर भी हैं। यानी जेवरों का चलन और व्यापार उस जमाने में शुरू हो गया था। नागराज सिंधु घाटी सभ्यता में खोजे गए शहरों की खुदाई में निकले मोहक स्टोन और उस के व्यापार को ले कर शोध कर रहे हैं। टाइगर की आकृति वाली मुहर भी मिली है जो व्यापार के लिए इस्तेमाल की जाती थी। विभिन्न प्रकार के औजार मिले हैं जो शिकार और मछली पकड़ने के काम आते थे। मछली पकड़ने के लिए तांबे के बने हुक मिले हैं। पौराणिक चरित्र वाले खिलौने प्राप्त हुए हैं। दरअसल, 1993 में पुरातत्त्व विभाग ने राखीगढ़ी की यह जमीन ले ली थी। इस से कुछ वर्ष पहले पता चला था कि राखीगढ़ी प्राचीन हड़प्पा, मोहनजोदड़ो सभ्यता का विशाल हिस्सा है। यह घग्घर नदी के किनारे बसा हुआ था। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान), धोलावीरा (गुजरात) और कालीबंगा (राजस्थान) के बाद राखीगढ़ी बड़ा शहर था। 2012 से पुरातत्त्व विभाग के साथ डेक्कन कालेज एवं रिसर्च इंस्टिट्यूट, पुणे मिल कर खनन करवा रहा है। बीचबीच में विदेशी विश्वविद्यालयों के शोधार्थी भी आतेजाते हैं। इन में दक्षिण कोरिया की सिओल यूनिवर्सिटी के रिसर्च स्कौलर भी उत्खनन के लिए आ चुके हैं। खुदाई से जाहिर हुआ है कि यहां सुव्यवस्थित नगरीय व्यवस्था थी। हड़प्पा काल के अन्य शहरों की भी बसावट नियोजित तरीके से थी। यहां बनाई गई पक्की ईंटों के मकान मिल रहे हैं और समुचित ड्रेनेज व्यवस्था थी। घरों में बड़े कमरे, अनाज भंडारण, स्नानागार बने हैं। मिट्टी के फर्श पर जानवरों की बलि के गड्ढे, तिकोने और गोल हवनकुंड आदि उस काल के रीतिरिवाजों के प्रमाण खुदाई में मिले हैं। उस काल में सिरेमिक उद्योग पनप चुका था। प्रमाण के तौर पर भांड, तश्तरी, गुलदान, पानदान, जाम, जार, प्लेटें, कप, प्याले, हांडी आदि चीजें मिल रही हैं। इस सभ्यता के विनाश के कारणों पर पुरातत्त्ववेत्ता एकमत नहीं हैं। बर्बर आक्रमण, बाढ़, भूकंप, महामारी जैसे अलगअलग तर्क हैं।
बदलेगी तसवीर
पुरातत्त्व विभाग ने राखीगढ़ी को राष्ट्रीय धरोहर के तौर पर संरक्षित किया है। संरक्षण के लिए इन टीलों को लोहे की रेलिंग से घेरा गया है पर कुछ टीलों के 2 या 3 तरफ से ही रेलिंग लगी हुई है। टीलों की कुछ जमीन गांव वालों के कब्जे में है। कहीं मकान बने हुए हैं तो कहीं उपलों के ढेर लगे हैं। पुरातत्त्व विभाग के अधिकारी कहते हैं कि हम ने किसानों को प्राचीन सभ्यता के महत्त्व के बारे में समझाया तो वे इस बात पर सहमत हुए कि समुचित मुआवजा मिलने पर वे जमीन छोड़ देंगे। राखीगढ़ी गांव के शिक्षित लोगों को यहां दबी प्राचीन सभ्यता मिलने पर गर्र्व है। वे खुश हैं और खुदाई स्थलों को दिखाने के लिए खुशी से साथ चल पड़ते हैं। राखीगढ़ी गांव के भारतीय जनता पब्लिक स्कूल के प्रिंसिपल प्रमोद कुमार को पुरातत्त्व में काफी रुचि है और अपने गांव की इस प्राचीन विरासत को ले कर वे काफी उत्साहित हैं। वे कहते हैं कि गांव के पढ़ेलिखे लोग खुश हैं कि गांव का नाम विश्व धरोहर में शामिल होने से विकास होगा, लोगों को रोजगार भी मिलेगा पर कुछ पुराने लोग खुश नहीं हैं। प्रमोद कुमार कहते हैं कि सरकार ने पंचायत के पास जगह खाली करने के लिए नोटिस भेजा था। सरकार द्वारा जगह खाली करने के एवज में किसानों को 90 हजार रुपए और 100 गज का प्लाट देने की बात कही गई थी पर यह मुआवजा काफी कम होने के कारण लोग सहमत नहीं हुए। इसलिए नोटिस वापस कर दिया गया। हालांकि पंचायत ने यहां म्यूजियम बनाने के लिए पुरातत्त्व विभाग को 6 एकड़ जमीन दी है। गांव के लोगों का कहना है कि कुछ समय पूर्व इन साइटों की खुदाई में भ्रष्टाचार की शिकायतों के चलते मामला सीबीआई के पास गया था। मजदूरी में बड़े पैमाने पर घपला हुआ था। राखीगढ़ी में निकले सामान को डेक्कन यूनिवर्सिटी में भेज दिया जाता है जबकि मकान, सड़क, श्मशान आदि को फिर से प्लास्टिक शीट से ढक कर ऊपर मिट्टी से भर दिया जाता है। दूसरे कुछ स्थलों की तरह ऊपर शैड बना कर संरक्षित नहीं किया गया है। अगर लोग खुदाई में निकले स्थल को देखना चाहें तो वे नहीं देख पाते। योगेश यादव कहते हैं कि अभी यहां संरक्षण की तकनीक और साधन नहीं हैं। भविष्य में इस पर ध्यान दिया जाएगा। 1997 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने करीब 3 किलोमीटर क्षेत्र में खुदाई की रूपरेखा तैयार की और 5 हजार साल पुराने ऐतिहासिक तथ्य इकट्ठे किए। धीरेधीरे पता चला कि यहां सड़कें, ड्रेनेज सिस्टम, बारिश के पानी का संग्रहण, अन्न भंडारण, पक्की ईंटों, मूर्ति निर्माण और तांबे व कीमती धातुओं पर कारीगरी के अवशेष प्राप्त होने शुरू हुए। 1997 से 2000 के बीच हुई खुदाई की रेडियो कार्बन डेटिंग के अनुसार क्षेत्र में 3 काल की सभ्यताएं दबी हुई हैं। पहला, हड़प्पा काल से पूर्व, दूसरा, परिपक्व हड़प्पा काल और तीसरा सिंधु घाटी सभ्यता का अंतिम काल। राखीगढ़ी एक नियोजित शहर था। चैड़ी सड़कें, घर से बाहर पानी निकासी के लिए ईंटों की नालियां बनी हुई थीं। अभी क्षेत्र के बड़े हिस्से का उत्खनन नहीं हुआ है। राखीगढ़ी में मिली सभ्यताओं से जाहिर है कि यहां के लोग बुद्धिमान थे। उन लोगों ने बुनियादी विज्ञान और तकनीक विकसित कर ली थी और वह लगातार जारी थी। 5 हजार साल पुरानी सभ्यता एवं संस्कृति को अपने भीतर दफन किए यह स्थल यहां आने वाले शख्स के अंदर एक उत्सुकता, उत्कंठा व रोमांच जगाता है कि उस काल के लोग कैसे थे, क्या करते थे, कैसा जीवन था। शहर, गांव किस तरह से विकसित थे। ज्ञानविज्ञान की समझ कैसी थी? लोगों की कदकाठी, रंगरूप कैसा था? लेकिन हमारी हजारों साल पुरानी सभ्यताओं के प्रति आम लोगों में खास रुचि नहीं दिखाई देती। सरकारें भी इस के प्रति उदासीन हैं। इन सभ्यताओं के प्रति रुचि रिसर्च छात्रछात्राओं, इतिहासकारों या कुछ बुद्धिजीवी लेखक, पत्रकारों तक ही सीमित है। इन स्थलों को स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय और आम जनता को दिखाने की सरकारों के पास कोई योजना नहीं है। पुरातत्त्व विभाग पर भी इन स्थलों के रखरखाव, संरक्षण, उत्खनन को ले कर उंगलियां उठती रही हैं। इस का इस तथ्य से अंदाज लगाया जा सकता है कि अब तक भारतीय उप महाद्वीप में इस सभ्यता के मिले करीब 1 हजार स्थलों में से कुछ ही परिपक्व अवस्था में हैं। इन स्थलों की खुदाई, संरक्षण जैसे कामों के लिए आम लोगों, स्वयंसेवकों को बड़ी संख्या में जोड़ा जा सकता है पर ऐसा कहीं कोई प्रयास दिखाई नहीं देता।
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